Wednesday, June 08, 2016







                                                                 एकान्त 

मन यहाँ लगता नहीं ,
मन कहीं लगता नहीं। 
शोर बहुत है शहर में , 
मन !चलो  एकान्त  में।। 

 शिशिर कण सी चांदनी ,स्व से हो मेरा मिलन।।

 तम भरा विस्तृत गगन है ,
तम  भरा हर -बाग़ -वन। 
जुगनुओं के उपवन में ,
 गीत !चलो एकान्त में।।

 जहाँ नभ मिले धरती से ,और निर्बाध बहे पवन।।



 इस अनय की भीड़ में ,
खोया हुआ संसार है। 
फिर व्यथा किसे सुनाऊं ?
टीस !चलो एकान्त  में।।

 शब्द सलिला जहाँ बहे ,भावों की कलकल में। 


 सूनेपन की झंझाओ में ,
'उर ' आया है अधरों पर। 
 अश्रु बहे भ्रमर -गुंजन में ,
 स्मृति !चलो एकान्त  में।।

 हर डगर पर पुष्प हो ,और जहाँ चिर बसंत।।



डॉ निरुपमा वर्मा