एकान्त
मन यहाँ लगता नहीं ,
मन कहीं लगता नहीं।
शोर बहुत है शहर में ,
मन !चलो एकान्त में।।
शिशिर कण सी चांदनी ,स्व से हो मेरा मिलन।।
तम भरा विस्तृत गगन है ,
तम भरा हर -बाग़ -वन।
जुगनुओं के उपवन में ,
गीत !चलो एकान्त में।।
जहाँ नभ मिले धरती से ,और निर्बाध बहे पवन।।
इस अनय की भीड़ में ,
खोया हुआ संसार है।
फिर व्यथा किसे सुनाऊं ?
टीस !चलो एकान्त में।।
शब्द सलिला जहाँ बहे ,भावों की कलकल में।
सूनेपन की झंझाओ में ,
'उर ' आया है अधरों पर।
अश्रु बहे भ्रमर -गुंजन में ,
स्मृति !चलो एकान्त में।।
हर डगर पर पुष्प हो ,और जहाँ चिर बसंत।।
डॉ निरुपमा वर्मा